Lekhika Ranchi

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आचार्य चतुसेन शास्त्री--वैशाली की नगरबधू-


127 . एकान्त पान्थ : वैशाली की नगरवधू

शरत्कालीन सुन्दर प्रभात था । राजगृह के अन्तरायण में अगणित मनुष्यों की भीड़ भरी थी । लोग अस्त्र - शस्त्रों से सुसज्जित इधर - उधर आ - जा रहे थे। प्रत्येक मनुष्य के मुंह पर युद्ध की ही चर्चा थी । नगर अशान्ति और उत्तेजना का केन्द्र स्थान बना हुआ था । लोग भय और आशंका से भरे हुए थे। शस्त्रधारी सैनिक झुण्ड - के - झुण्ड वीथियों और हट्टों में फिर रहे थे तथा आवश्यकता की सामग्री खरीद रहे थे। सम्राट और महामात्य वर्षकार के विग्रह की खूब बढ़ा - चढ़ाकर और नमक -मिर्च लगाकर चर्चाएं हो रही थीं । गुप्तचरों, सत्रियों का नगर में जाल बिछा था । मन्त्री, पुरोहित , अन्तर - अमात्य , दौवारिक, अन्तर्वेशिक, अन्तपाल , आटविक व्यस्तभाव से नगर में आ - जा रहे थे। हिरण्य और धान्यों से भरे हुए शकट सशस्त्र प्रहरियों के बीच राजभाण्डागार में जा रहे थे। अनेक सत्री और तीक्ष्ण पुरुष तथा गूढ़ाजीव अदिति , कौशिक स्त्रियां नगर में घूम रही थीं । कोई दैवज्ञ के वेश में , कोई भिक्षुकी के वेश में , कोई क्षपणक के वेश में परस्पर मिलने पर गूढ़ संकेत करते हुए घूम रहे थे। नगर की चर्चा का मुख्य विषय युद्ध - कौशल, शस्त्र - प्रयोग और युद्धप्रियता थी । थोड़ा भी कोलाहल होने पर लोगों की भीड़ किसी भी स्थान पर जमा हो जाती थी ।

पान्थागार के सम्मुख एक परदेसी एकान्त पान्थ अश्वारोही आकर रुक गया । अश्व और आरोही दोनों ही अद्भुत थे। अश्व ऊंची रास का एक मूल्यवान् सैन्धव था और अश्वारोही एक स्फूर्तियुक्त , बलिष्ठ किन्तु ग्रामीण - सा युवक था । ऐसा प्रतीत होता था जैसे उसने कोई बड़ा नगर देखा नहीं है तथा वह अकस्मात् राजगृह की इस तड़क - भड़क को देखकर विमूढ़ हो गया है । उसका अश्व मांसल, सुन्दर एवं चंचल था । अश्वारोही का गम्भीर मुख, बड़े-बड़े ज्योतिर्मय नेत्र , उन्नत मस्तक और दीर्घ वक्ष तथा दृढ़ अंग उसके उत्कृष्ट योद्धा होने के साक्षी थे और उसके ग्रामीण वेश तथा अद्भुत व्यवहार करने पर भी उसका सौष्ठव व्यक्त करते थे । एक विकराल खड्ग उसकी कमर में लटक रहा था । उसकी दृष्टि निर्भय थी । वह भीड़ में खड़ा लोगों की संदिग्ध दृष्टियों को उपेक्षा और अवज्ञा की दृष्टि से देख रहा था । उसके वस्त्र धूल से भरे थे और शरीर थकान से चूर - चूर था । यह स्पष्ट था कि वह अनवरत लम्बी यात्रा करता हुआ आया है । उसका अश्व भी पसीने से तर- बतर था ।

वह पान्थागार के अध्यक्ष से बातें कर रहा था । अध्यक्ष ने उसे सिर से पैर तक घूरकर कहा - “ मित्र, खेद है कि मैं तुम्हें स्थान नहीं दे सकता , सब घर घिर गए हैं । वैशाली से राजदूत आए हैं , उन्हीं के सब संगी- साथी तथा स्वयं राजदूत ने भी यहीं डेरा किया है । एक भी घर खाली नहीं है। ”

“ तो मित्र , तू मुझे अपना निजू अतिथि मान। मुझे विश्राम की अत्यन्त आवश्यकता है । ये दस कार्षापण तेरे लिए है। ”

सोने के दस चमचमाते टुकड़े हथेली पर रखे देख पान्थागार के अध्यक्ष के सब विचार बदल गए । उसने हंसकर कहा - “ यह तो बात ही कुछ और है भन्ते ! परन्तु दु: ख है कि मेरे पास पान्थागार में स्थान नहीं है, फिर भी आप एक प्रतिष्ठित सज्जन हैं , मैं आपकी कुछ सहायता कर सकता हूं। ”

“ किस प्रकार मित्र ! ”

“ मेरा एक मित्र है, वह सम्राट का प्रतीहार है। यहीं निकट ही उसका घर है, घर बड़ा और सुसज्जित है । सौभाग्य से वह बड़ा लालची है । ऐसे दस सुवर्ण पाकर तो वह अपने रहने का सजा - धजा कक्ष ही आपको अर्पण कर सकता है। इतने बड़े घर में वह और उसकी पत्नी केवल दो ही व्यक्ति रहते हैं । ”

“ तो मित्र यही कर , सुवर्ण की चिन्ता न कर । ”

अध्यक्ष उस प्रतीहार को बुला लाया । वह एक ढीला -ढाला मोटा वस्त्र पहने था । दुबला-पतला शरीर , मिचमिची आंखें , गंजी खोपड़ी , पतली गर्दन । उसने आकर सम्मान पूर्वक युवक का अभिवादन किया । युवक ने पूछा - “ यही वह व्यक्ति है ? ”

“ यही है भन्ते । ”

“ तब यह स्वर्ण है। ”उसने दस टुकड़े उसकी हथेली पर रखकर कहा - “ शेष तुम्हारा साथी समझा देगा । ” _

“ मैंने समझ लिया भन्ते , खूब समझ लिया , आइए आप । ”इतना कहकर अतिविनीत भाव से पान्थ को अपने साथ ले चला ।

प्रतीहार का घर छोटा था , परन्तु उसमें सब सुविधाएं जयराज के अनुकूल थीं । वहां वह नि : शंक आराम से टिक गए। यहां उन्हें एक सहायता और मिल गई । प्रतीहार ने उन्हें एक कृषक तरुण कहीं से ला दिया । यह बालक अठारह वर्ष का एक उत्साही और स्वस्थ नवयुवक था । जयराज ने उसे एक टाघन खरीद दिया और खूब खिला-पिलाकर परचा लिया । वह कृषक बालक छाया की भांति जयराज के साथ रहकर उनकी सेवा तथा आज्ञापालन करने लगा ।

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